1:34 PM
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ज़िन्दगी मेरी तेरी हयात से मिलती है।
ये हक़ीक़त मुझे उस रात से मिलती है।
ज़हर पिलाती है हुक़ूमत जाम की सूरत
हमारी सीरत सुकरात से मिलती है।
ग़ुरबत के घिरौंदों में सिसकती-सी ज़िन्दगी
टपकते घरों में बरसात से मिलती है।
भूखे रहकर भूखों की तलाश रहती है
ये फक़ीरियत मुझको तेरी ज़ात से मिलती है।
राशन की क़तारों में जूझती है ज़िन्दगी
ये हक़ीक़त थालियों के हालात से मिलती है।
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान
रिपोर्टर - स्टार न्यूज़, बरेली
तारीख़ - ३० अगस्त २०१०
मोबाइल - 09897531980, 09457372960
2:53 PM
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जिसे ता उम्र सोचा वो लड़की शहर की थी
उसने छोड़ा जिस जगह वो धूप दोपहर की थी।
मुझको तसल्ली देती रही वक्ते रुख़सती पर
पर्चा दवा का हाथ में, शीशी ज़हर की थी।
अरमाने इश्क मुझको ले आया था कहाँ
न पता था शाम का, न ख़बर सहर की थी।
थक-हारके दरख्त के नीचे मैं आ गया
हालात की नवाज़िश और गर्द सफर की थी।
नर्म लहज़ा, दाईमी तबस्सुम और प्यार भरी बातें
उसमें सारी क़ैफियत अता तेरे असर की थी।
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)
1:44 PM
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सोई आँखों में मेरी याद जगाकर रखना
आँख तर रखना मगर सबसे छुपाकर रखना
यूँ बदगुमान हुआ दिल मेरे सीने से निकलकर
मेरे सीने में धड़कता हुआ कोई पत्थर रखना
यादे गर्दिश को समेटे हुए चलना लेकिन
दिल में सहमी हुई आहों का समन्दर रखना
मैंने उसको नहीं देखा है, न उसने मुझे
गर मिले दुनिया कहीं अक्स बनाकर रखना
तन ढको उनका जो ज़िन्दा हैं, बेलिबास भी हैं
तुम क़फ़न मेंरा मेरे क़द के बराबर रखना
आना है अगर लौटकर, तो लौट आओ मगर
अब मेरे बीच से हद एक बनाकर रखना
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)
1:23 PM
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ओ मेरे नयनों के सुनहरे दर्पण
हर पल मैं चाहूँ बस तेरे दर्शन
आकाश काला वो काली घटाएँ
चुराया है तेरे नयनों से अँजन
था सूर्य तो कई शतकों से
प्रकाश पाया किए तेरे दर्शन
झाँका बादलों से जब चन्द्रमा ने
हुआ तेरा रोगी देखके तन-मन
पुष्प कमल के खिलके नदी में
देखके डोले हैं तेरा रंजन
था विनोद प्रिय ये जीवन मेरा
आप न आये, दिल सूना आँगन
होती न दीपक में ऐसी ज्योति
होते यदि न तुम मेरे साजन
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)
12:44 PM
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मैं जिस घर में रहता हूँ
उसके आस-पास कोई मकान नहीं
सब दीवारें भी गायब हैं
और ऊपर कोई छत भी नहीं
इसके चारों ओर कोई पर्दा नहीं
मैं हूँ और मेरी तन्हाई है
कोई मेहमान मिलने नहीं आता है
और न ही आता है कोई रिश्तेदार भी
चिड़ियाँ भी इस ओर से ज़रा बचके गुज़रती हैं
सूरज भी इधर से ज़रा कतराके निकलता है
रात को चाँद भी बीमार-सा दिखता है
मेरे आँगन के दायरे में जितने सितारे हैं
न टिमटिमाते हैं, न झिलमिलाते हैं
सब कुछ तन्हा-सा है, गुम-सा है
मगर जब कभी तुम्हारी याद
मेरे आँगन में बिखर जाती है
बादल घुमड़के सब जमा हो जाते हैं
और छत बनकर मेरी घर को घेर लेते हैं
फूल मुस्कुराकर झूमने लगते हैं
हवाएं, दीवार बनकर मेरे घर का पर्दा करती हैं
और चिड़िया इस दीवार पे चहचहाने लगती हैं
ज़मीन पर सूरज की पहली किरन
मेरे आँगन को सलाम करने आती है
चाँद में बैठी बूढ़ी नानी मुझको बुलाने लगती है
तारे सब आँख-मिचौली करते मेरे आँगन में उतर जाते हैं
क्योंकि मैंने इस घर का नाम मोहब्बत रखा है
रचयिता - मुस्तफीज़ अली खान
ज़िला - बरेली
रिपोर्टर - ईटीवी, उत्तर प्रदेश
11:42 AM
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हे मछुआरे
हे शिकारी
बारिश की हल्की बूँदों में
नदी किनारे बैठे चुपचाप
तुम बंशी में आटा पिरोते हो
भूखी और थकी-हारी मछलियाँ
जब आटा निगलने आती है
तुम्हारे छले हुए आटे में छिपा
वो काँटा भी निगल जाती हैं
मछलियों को उनकी भूख मिटाने का
तुम अक्सर झाँसा देते हो
मगर इस छल से, इस धोखे से
तुम अपनी भूख मिटाते हो
अरे शिकारी
मुझको अपनी नहीं
मछलियों की ही सही
मगर भूख मिटाना सिखा दो
अरे यार मछुआरे
मुझे आटा पिरोना सिखा दो
उस बंशी में
जिसमें
न कोई काँटा है
और न ही कोई डोर
11:19 AM
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रफ्ता-रफ्ता तेरी ख़ामोशियों में डूबकर
मैंने मीलों किया तन्हा सफर रफ्ता-रफ्ता
वक्त की पहली सहर से लेकर
तक़दीर की आख़िरी शाम तलक
तुम मेरी नब्ज़ में बहते हो लहू बनकर
मेरी आँखों में किसी नूर की तरह सलामत हो
तुम मेरे साथ हो यूँ
साँसों का सिलसिला हो जैसे
सवाल यही है
कि मैं तुम्हारे क़रीब
हूँ भी कि नहीं
या सिर्फ तुम ही मुझमें समाए हो
सच्चाई यही है
कि तुम मुझमें हो
और मैं तुम में हूँ
मेरे-तुम्हारे बीच
अब कोई फासला नहीं, कोई दीवार नहीं
अब सोचता हूँ
वह बात तुमसे कह दूँ
वह ज़िक्र तुमसे करूँ
जो मैं सोचता आया हूँ कई सदियों से...........
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान
10:53 AM
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एक अरसे दराज़ के बाद
आज तुमको देखा है
आँखों में वह चमक बाकी तो है अभी तक
मगर तुम कई रातों के जागे हुए लगते हो
सूरत वही जानी पहचानी-सी है
पर न जाने क्यों तुम अजनबी से दिखते हो
ये कई बार मेरा-तुम्हारा सामना
कहीं महज़ एक इत्तिफाक़ तो नहीं
या फिर इत्तिफाक़ बनाया गया है यूँ ही
अफसोस मगर कि नज़दीक से गुज़रकर भी
नज़र भरके नहीं देखा तुमने
दामन बचाए ख़ामोशी से लौट गये हो तुम
आज, दुःखी मन से मैं अपने घर में आया हूँ
उन फटे हुए ख़तों के पुर्ज़े
अपनी लहू बहती उँगलियों से जमा करके लाया हूँ
मन करता है उस नदी की तेज़ धारा में
इनको बहाता चलूँ
जिसके किनारे पर अक्सर
हम-तुम मिला करते थे
मन करता है उसी मक़ाम पर
ख़तों के पुर्ज़े बिछाऊँ
और उन पर सो जाऊँ
हमेशा......हमेशा के लिये.............
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान
9:56 AM
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आया था वह दिल तोड़ने और तोड़ गया भी
आँखों में वह दरिया का असर छोड़ गया भी।
लफ्ज़ों में कही बात नहीं उसने ज़बाँ से
ख़त लिखके मेरे नाम का इक छोड़ गया भी।
करता था रक़ीबों से मेरा ज़िक्र हमेशा
आते ही मेरे बात का रूख़ मोड़ गया भी।
मैंने मुजरिम उसे ठहरा दिया भरी महफिल में
जुर्म कुछ मान गया वह, कुछ छोड़ गया भी।
मेरी बरबादियों के इल्ज़ाम उसी के सर थे
नाम जिसका मेरे लब पे दम तोड़ गया भी।
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान
12:41 PM
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......सुना है
मेरे गाँव में
दूर शहर से
कुछ परिन्दे आये हैं
हंस के जैसे सफेद
झील-सी नीली आँखों वाले
कभी उड़ते हैं मेरे सहन के ऊपर
कभी बैठ जाते हैं नीम की शाखों पर
कभी ख़ामोश रहते हैं
शाम की तन्हाई तक
कभी उड़ने लगते हैं
सुबह के उजालों से
वह बात करते हैं
मेरे गुज़रे हुए सालों से
उनकी गर्दन में बँधे हैं
कुछ ख़ुतूत, कुछ ख़्वाब
पिछले हवालों के
शायद किसी के शहर छोड़ जाने का
वो पैग़ाम लाये हैं
......सुना है
मेरे गाँव में
दूर शहर से
कुछ परिन्दे आये हैं
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान,
बरेली (उ०प्र०)
3:08 AM
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कभी-कभी मेरे ज़ेहन में यह कसक-सी उठती है
कभी-कभी मेरा ज़मीर मुझसे सवाल करता है
कि तुम्हारी यादों का सारा साज़ो-सामान
आज तुमको लौटा दूँ
किताब में रखे वह मोर के पँख
वह मुरझाए हुए गुलाबों की पंखुड़ियाँ
तुम्हारे क़दमों के सुपुर्द करूँ
तुम्हारे हाथों की लिखी तहरीरों से
अब कोई रिश्ता न रखूँ
मगर सोचता रहता हूँ
कि मेरे हाथ ख़ाली रह जाएँ
क्या यही मेरी मोहब्बत का हासिल है
तुम तो तुम हो
तुम्हें हर हाल में जीने का हुनर आता है
मगर मेरे पास जीने के लिये
तुम्हारी यादों की इस पोटली के सिवा
कुछ भी तो नहीं है
कुछ भी नहीं है
हाँ, शायद.........
कुछ भी नहीं।
2:51 AM
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फूलों की नाज़ुकी से अब कोई रिश्ता नहीं
काँटे भी मेरी उंगलियों को अब चुभते नहीं
खुश्बू भी मुझसे क़तराके गुज़र जाती है
मगर वो लम्हात
मेरे ज़ेहन को आज भी महकाते हैं
यूँ ही राह में, कॉलेज के किसी मोड़ पर
वह क्लास छूटने की किसी होड़ में
हाथ टकराकर मेरे हाथ से
उनकी किताबों का गिर जाना
वह नाराज़गी उनकी मेरी गुस्ताख़ियों पर
मेरा शर्म से पानी-सा बिखर जाना
हाथों में जमा होती किताबों की मसरूफियत
उनके शानों पे ज़ुल्फों का बिखर जाना
हाँ, मुझे याद है वह लम्हात इस पहर भी
किताब के पन्नों में किसी ताज़ा गुलाब की सूरत
उनकी सूरत पे वह शर्मो हया
वह इख़लास का पैक़र
कुछ ही लम्हों की होती थी
टकराव की रस्साकशी
फिर किताबें थामकर चल देना तेज़ी से
पलटकर, मुस्कुराकर कह देना.....कोई बात नहीं
महक रहे हैं उसी दिन से आज तलक
मेरे हाथ, मेरा दामन और सूरत मेरी
भले ही टूट गया है मेरा वह रिश्ता
जो कभी गुलाब के फूलों से था
जो हाथ में थमी किताबों से था।
8:14 PM
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बेरंगो बेनूर था गुलाब इससे पहले
ख़ुश्बू से भी इसका कोई वास्ता न था
तामीर भी गुलाब की ख़ूबसूरत न थी
हमने देखा है इसे
किताब के पन्नों में मुरझाया हुआ
दम टूटा हुआ, जिस्म बिखरा हुआ
मुझको याद है मेरे घर के आँगन में
एक बार तुमने गुलाब तोड़ा था
काँटा लगने से ख़ून के चंद क़तरे
तुम्हारी उँगलियों से टपककर
गुलाब पर बिखरे थे
शायद वही रंग तो गुलाबों में नज़र आता है
तु्म्हारे लहू की ख़ुश्बू गुलाबों में बसी है
शायद इसीलिये
तुम्हारी सूरत से मिलती है
गुलाब की सूरत।