लड़की शहर की थी

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जिसे ता उम्र सोचा वो लड़की शहर की थी
उसने छोड़ा जिस जगह वो धूप दोपहर की थी।

मुझको तसल्ली देती रही वक्ते रुख़सती पर
पर्चा दवा का हाथ में, शीशी ज़हर की थी।

अरमाने इश्क मुझको ले आया था कहाँ
न पता था शाम का, न ख़बर सहर की थी।

थक-हारके दरख्त के नीचे मैं आ गया
हालात की नवाज़िश और गर्द सफर की थी।

नर्म लहज़ा, दाईमी तबस्सुम और प्यार भरी बातें
उसमें सारी क़ैफियत अता तेरे असर की थी।


रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)

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