मेरा घर - मेरी मोहब्बत

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मैं जिस घर में रहता हूँ
उसके आस-पास कोई मकान नहीं
सब दीवारें भी गायब हैं
और ऊपर कोई छत भी नहीं
इसके चारों ओर कोई पर्दा नहीं
मैं हूँ और मेरी तन्हाई है
कोई मेहमान मिलने नहीं आता है
और न ही आता है कोई रिश्तेदार भी
चिड़ियाँ भी इस ओर से ज़रा बचके गुज़रती हैं
सूरज भी इधर से ज़रा कतराके निकलता है
रात को चाँद भी बीमार-सा दिखता है
मेरे आँगन के दायरे में जितने सितारे हैं
न टिमटिमाते हैं, न झिलमिलाते हैं
सब कुछ तन्हा-सा है, गुम-सा है
मगर जब कभी तुम्हारी याद
मेरे आँगन में बिखर जाती है
बादल घुमड़के सब जमा हो जाते हैं
और छत बनकर मेरी घर को घेर लेते हैं
फूल मुस्कुराकर झूमने लगते हैं
हवाएं, दीवार बनकर मेरे घर का पर्दा करती हैं
और चिड़िया इस दीवार पे चहचहाने लगती हैं
ज़मीन पर सूरज की पहली किरन
मेरे आँगन को सलाम करने आती है
चाँद में बैठी बूढ़ी नानी मुझको बुलाने लगती है
तारे सब आँख-मिचौली करते मेरे आँगन में उतर जाते हैं
क्योंकि मैंने इस घर का नाम मोहब्बत रखा है

रचयिता - मुस्तफीज़ अली खान
ज़िला - बरेली
रिपोर्टर - ईटीवी, उत्तर प्रदेश