tag:blogger.com,1999:blog-62443452770074608012024-02-08T07:21:56.223-08:00naafizaaसोचता रहता हूँ रात-दिन तुमको...
अजनबी लोगों में अपने नज़र आते हो...
जबकि मालूम है कि तुम मेरे नहीं हो...MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-49001560808966453872010-08-30T13:34:00.000-07:002010-08-30T13:34:07.076-07:00सुकरात जैसी सीरतज़िन्दगी मेरी तेरी हयात से मिलती है।<br />
ये हक़ीक़त मुझे उस रात से मिलती है।<br />
<br />
ज़हर पिलाती है हुक़ूमत जाम की सूरत<br />
हमारी सीरत सुकरात से मिलती है।<br />
<br />
ग़ुरबत के घिरौंदों में सिसकती-सी ज़िन्दगी<br />
टपकते घरों में बरसात से मिलती है।<br />
<br />
भूखे रहकर भूखों की तलाश रहती है<br />
ये फक़ीरियत मुझको तेरी ज़ात से मिलती है।<br />
<br />
राशन की क़तारों में जूझती है ज़िन्दगी<br />
ये हक़ीक़त थालियों के हालात से मिलती है।<br />
<br />
रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान<br />
रिपोर्टर - स्टार न्यूज़, बरेली<br />
तारीख़ - ३० अगस्त २०१०<br />
मोबाइल - 09897531980, 09457372960MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-6150360362334030072010-05-29T14:53:00.000-07:002010-05-29T14:55:23.872-07:00लड़की शहर की थीजिसे ता उम्र सोचा वो लड़की शहर की थी<br />उसने छोड़ा जिस जगह वो धूप दोपहर की थी।<br /><br />मुझको तसल्ली देती रही वक्ते रुख़सती पर<br />पर्चा दवा का हाथ में, शीशी ज़हर की थी।<br /><br />अरमाने इश्क मुझको ले आया था कहाँ<br />न पता था शाम का, न ख़बर सहर की थी।<br /><br />थक-हारके दरख्त के नीचे मैं आ गया<br />हालात की नवाज़िश और गर्द सफर की थी।<br /><br />नर्म लहज़ा, दाईमी तबस्सुम और प्यार भरी बातें<br />उसमें सारी क़ैफियत अता तेरे असर की थी।<br /><br /><br />रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-46521642321868359722010-05-29T13:44:00.001-07:002010-05-29T13:53:15.376-07:00क़द के बराबर क़फ़नसोई आँखों में मेरी याद जगाकर रखना<br />आँख तर रखना मगर सबसे छुपाकर रखना<br /><br />यूँ बदगुमान हुआ दिल मेरे सीने से निकलकर<br />मेरे सीने में धड़कता हुआ कोई पत्थर रखना<br /><br />यादे गर्दिश को समेटे हुए चलना लेकिन<br />दिल में सहमी हुई आहों का समन्दर रखना<br /><br />मैंने उसको नहीं देखा है, न उसने मुझे<br />गर मिले दुनिया कहीं अक्स बनाकर रखना<br /><br />तन ढको उनका जो ज़िन्दा हैं, बेलिबास भी हैं<br />तुम क़फ़न मेंरा मेरे क़द के बराबर रखना<br /><br />आना है अगर लौटकर, तो लौट आओ मगर<br />अब मेरे बीच से हद एक बनाकर रखना<br /><br /><br />रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-40994038311639516422010-05-29T13:23:00.001-07:002010-05-29T13:43:13.065-07:00तेरे दर्शनओ मेरे नयनों के सुनहरे दर्पण<br />हर पल मैं चाहूँ बस तेरे दर्शन<br /><br />आकाश काला वो काली घटाएँ<br />चुराया है तेरे नयनों से अँजन<br /><br />था सूर्य तो कई शतकों से<br />प्रकाश पाया किए तेरे दर्शन<br /><br />झाँका बादलों से जब चन्द्रमा ने<br />हुआ तेरा रोगी देखके तन-मन<br /><br />पुष्प कमल के खिलके नदी में<br />देखके डोले हैं तेरा रंजन<br /><br />था विनोद प्रिय ये जीवन मेरा<br />आप न आये, दिल सूना आँगन<br /><br />होती न दीपक में ऐसी ज्योति<br />होते यदि न तुम मेरे साजन<br /><br />रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-68203280105789444502010-03-19T12:44:00.000-07:002010-03-19T13:46:04.904-07:00मेरा घर - मेरी मोहब्बतमैं जिस घर में रहता हूँ<br />उसके आस-पास कोई मकान नहीं<br />सब दीवारें भी गायब हैं<br />और ऊपर कोई छत भी नहीं<br />इसके चारों ओर कोई पर्दा नहीं<br />मैं हूँ और मेरी तन्हाई है<br />कोई मेहमान मिलने नहीं आता है<br />और न ही आता है कोई रिश्तेदार भी<br />चिड़ियाँ भी इस ओर से ज़रा बचके गुज़रती हैं<br />सूरज भी इधर से ज़रा कतराके निकलता है<br />रात को चाँद भी बीमार-सा दिखता है<br />मेरे आँगन के दायरे में जितने सितारे हैं<br />न टिमटिमाते हैं, न झिलमिलाते हैं<br />सब कुछ तन्हा-सा है, गुम-सा है<br />मगर जब कभी तुम्हारी याद<br />मेरे आँगन में बिखर जाती है<br />बादल घुमड़के सब जमा हो जाते हैं<br />और छत बनकर मेरी घर को घेर लेते हैं<br />फूल मुस्कुराकर झूमने लगते हैं<br />हवाएं, दीवार बनकर मेरे घर का पर्दा करती हैं<br />और चिड़िया इस दीवार पे चहचहाने लगती हैं<br />ज़मीन पर सूरज की पहली किरन<br />मेरे आँगन को सलाम करने आती है<br />चाँद में बैठी बूढ़ी नानी मुझको बुलाने लगती है<br />तारे सब आँख-मिचौली करते मेरे आँगन में उतर जाते हैं<br />क्योंकि मैंने इस घर का नाम मोहब्बत रखा है<br /><br />रचयिता - मुस्तफीज़ अली खान<br />ज़िला - बरेली<br />रिपोर्टर - ईटीवी, उत्तर प्रदेशMUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-26320427724093740872010-02-17T11:42:00.000-08:002010-02-17T12:07:07.862-08:00मुझको आटा पिरोना सिखा दोहे मछुआरे<br />हे शिकारी<br />बारिश की हल्की बूँदों में<br />नदी किनारे बैठे चुपचाप<br />तुम बंशी में आटा पिरोते हो<br />भूखी और थकी-हारी मछलियाँ<br />जब आटा निगलने आती है<br />तुम्हारे छले हुए आटे में छिपा<br />वो काँटा भी निगल जाती हैं<br />मछलियों को उनकी भूख मिटाने का<br />तुम अक्सर झाँसा देते हो<br />मगर इस छल से, इस धोखे से<br />तुम अपनी भूख मिटाते हो<br />अरे शिकारी<br />मुझको अपनी नहीं<br />मछलियों की ही सही<br />मगर भूख मिटाना सिखा दो<br />अरे यार मछुआरे<br />मुझे आटा पिरोना सिखा दो<br />उस बंशी में<br />जिसमें<br />न कोई काँटा है<br />और न ही कोई डोरMUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-23702577532318150862010-02-16T11:19:00.000-08:002010-02-16T11:58:12.710-08:00एक अनकही बातरफ्ता-रफ्ता तेरी ख़ामोशियों में डूबकर<br />मैंने मीलों किया तन्हा सफर रफ्ता-रफ्ता<br />वक्त की पहली सहर से लेकर<br />तक़दीर की आख़िरी शाम तलक<br />तुम मेरी नब्ज़ में बहते हो लहू बनकर<br />मेरी आँखों में किसी नूर की तरह सलामत हो<br />तुम मेरे साथ हो यूँ<br />साँसों का सिलसिला हो जैसे<br />सवाल यही है<br />कि मैं तुम्हारे क़रीब<br />हूँ भी कि नहीं<br />या सिर्फ तुम ही मुझमें समाए हो<br />सच्चाई यही है<br />कि तुम मुझमें हो<br /><span class="">और मैं तुम में हूँ</span><br /><span class="">मेरे-तुम्हारे बीच</span><br /><span class="">अब कोई फासला नहीं, कोई दीवार नहीं</span><br />अब सोचता हूँ<br /><span class="">वह बात तुमसे कह दूँ</span><br />वह ज़िक्र तुमसे करूँ<br />जो मैं सोचता आया हूँ कई सदियों से...........<br /><span class=""></span><br /> रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ानMUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-15395340472196818312010-02-16T10:53:00.000-08:002010-02-16T11:05:49.331-08:00.......एक अरसे दराज़ के बादएक अरसे दराज़ के बाद<br />आज तुमको देखा है<br />आँखों में वह चमक बाकी तो है अभी तक<br />मगर तुम कई रातों के जागे हुए लगते हो<br />सूरत वही जानी पहचानी-सी है<br />पर न जाने क्यों तुम अजनबी से दिखते हो<br />ये कई बार मेरा-तुम्हारा सामना<br />कहीं महज़ एक इत्तिफाक़ तो नहीं<br />या फिर इत्तिफाक़ बनाया गया है यूँ ही<br />अफसोस मगर कि नज़दीक से गुज़रकर भी<br />नज़र भरके नहीं देखा तुमने<br />दामन बचाए ख़ामोशी से लौट गये हो तुम<br />आज, दुःखी मन से मैं अपने घर में आया हूँ<br />उन फटे हुए ख़तों के पुर्ज़े<br />अपनी लहू बहती उँगलियों से जमा करके लाया हूँ<br />मन करता है उस नदी की तेज़ धारा में<br />इनको बहाता चलूँ<br />जिसके किनारे पर अक्सर<br />हम-तुम मिला करते थे<br />मन करता है उसी मक़ाम पर<br />ख़तों के पुर्ज़े बिछाऊँ<br />और उन पर सो जाऊँ<br /><span class="">हमेशा......हमेशा के लिये.............<br /></span><br /> रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ानMUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-72580881726128384962010-02-16T09:56:00.000-08:002010-02-16T10:52:40.458-08:00ख़त मेरे नाम का.........आया था वह दिल तोड़ने और तोड़ गया भी<br />आँखों में वह दरिया का असर छोड़ गया भी।<br /><br />लफ्ज़ों में कही बात नहीं उसने ज़बाँ से<br />ख़त लिखके मेरे नाम का इक छोड़ गया भी।<br /><br />करता था रक़ीबों से मेरा ज़िक्र हमेशा<br />आते ही मेरे बात का रूख़ मोड़ गया भी।<br /><br />मैंने मुजरिम उसे ठहरा दिया भरी महफिल में<br />जुर्म कुछ मान गया वह, कुछ छोड़ गया भी।<br /><br />मेरी बरबादियों के इल्ज़ाम उसी के सर थे<br />नाम जिसका मेरे लब पे दम तोड़ गया भी।<br /><br /> रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ानMUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-90828232878332608092010-02-15T12:41:00.000-08:002010-02-15T13:04:53.216-08:00......सुना है दूर शहर से<span class="">......सुना है</span><br /><span class="">मेरे गाँव में</span><br />दूर शहर से<br />कुछ परिन्दे आये हैं<br />हंस के जैसे सफेद<br />झील-सी नीली आँखों वाले<br />कभी उड़ते हैं मेरे सहन के ऊपर<br />कभी बैठ जाते हैं नीम की शाखों पर<br />कभी ख़ामोश रहते हैं<br />शाम की तन्हाई तक<br />कभी उड़ने लगते हैं<br />सुबह के उजालों से<br />वह बात करते हैं<br />मेरे गुज़रे हुए सालों से<br />उनकी गर्दन में बँधे हैं<br />कुछ ख़ुतूत, कुछ ख़्वाब<br />पिछले हवालों के<br />शायद किसी के शहर छोड़ जाने का<br />वो पैग़ाम लाये हैं<br />......सुना है<br />मेरे गाँव में<br />दूर शहर से<br /><span class="">कुछ परिन्दे आये हैं<br />रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान,</span><br />बरेली (उ०प्र०)MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-81528807308678738522010-02-14T03:08:00.000-08:002010-02-14T03:16:00.488-08:00तेरी यादें मेरा खज़ीनाकभी-कभी मेरे ज़ेहन में यह कसक-सी उठती है<br />कभी-कभी मेरा ज़मीर मुझसे सवाल करता है<br />कि तुम्हारी यादों का सारा साज़ो-सामान<br />आज तुमको लौटा दूँ<br />किताब में रखे वह मोर के पँख<br />वह मुरझाए हुए गुलाबों की पंखुड़ियाँ<br />तुम्हारे क़दमों के सुपुर्द करूँ<br />तुम्हारे हाथों की लिखी तहरीरों से<br />अब कोई रिश्ता न रखूँ<br />मगर सोचता रहता हूँ<br />कि मेरे हाथ ख़ाली रह जाएँ<br />क्या यही मेरी मोहब्बत का हासिल है<br />तुम तो तुम हो<br />तुम्हें हर हाल में जीने का हुनर आता है<br />मगर मेरे पास जीने के लिये<br />तुम्हारी यादों की इस पोटली के सिवा<br />कुछ भी तो नहीं है<br />कुछ भी नहीं है<br />हाँ, शायद.........<br />कुछ भी नहीं।MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-79450349595998814542010-02-14T02:51:00.000-08:002010-02-14T03:06:06.151-08:00एक पुराना रिश्ताफूलों की नाज़ुकी से अब कोई रिश्ता नहीं<br />काँटे भी मेरी उंगलियों को अब चुभते नहीं<br />खुश्बू भी मुझसे क़तराके गुज़र जाती है<br />मगर वो लम्हात<br />मेरे ज़ेहन को आज भी महकाते हैं<br />यूँ ही राह में, कॉलेज के किसी मोड़ पर<br />वह क्लास छूटने की किसी होड़ में<br />हाथ टकराकर मेरे हाथ से<br />उनकी किताबों का गिर जाना<br />वह नाराज़गी उनकी मेरी गुस्ताख़ियों पर<br />मेरा शर्म से पानी-सा बिखर जाना<br />हाथों में जमा होती किताबों की मसरूफियत<br />उनके शानों पे ज़ुल्फों का बिखर जाना<br />हाँ, मुझे याद है वह लम्हात इस पहर भी<br />किताब के पन्नों में किसी ताज़ा गुलाब की सूरत<br />उनकी सूरत पे वह शर्मो हया<br />वह इख़लास का पैक़र<br />कुछ ही लम्हों की होती थी<br />टकराव की रस्साकशी<br />फिर किताबें थामकर चल देना तेज़ी से<br />पलटकर, मुस्कुराकर कह देना.....कोई बात नहीं<br />महक रहे हैं उसी दिन से आज तलक<br />मेरे हाथ, मेरा दामन और सूरत मेरी<br />भले ही टूट गया है मेरा वह रिश्ता<br />जो कभी गुलाब के फूलों से था<br />जो हाथ में थमी किताबों से था।MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6244345277007460801.post-91120548241385344802010-02-10T20:14:00.000-08:002010-02-10T20:30:02.687-08:00तेरी सूरत ताकता है गुलाबबेरंगो बेनूर था गुलाब इससे पहले<br />ख़ुश्बू से भी इसका कोई वास्ता न था<br />तामीर भी गुलाब की ख़ूबसूरत न थी<br />हमने देखा है इसे<br />किताब के पन्नों में मुरझाया हुआ<br />दम टूटा हुआ, जिस्म बिखरा हुआ<br />मुझको याद है मेरे घर के आँगन में<br />एक बार तुमने गुलाब तोड़ा था<br />काँटा लगने से ख़ून के चंद क़तरे<br />तुम्हारी उँगलियों से टपककर<br />गुलाब पर बिखरे थे<br />शायद वही रंग तो गुलाबों में नज़र आता है<br />तु्म्हारे लहू की ख़ुश्बू गुलाबों में बसी है<br />शायद इसीलिये<br />तुम्हारी सूरत से मिलती है<br />गुलाब की सूरत।MUSTAFEEZ ALI KHANhttp://www.blogger.com/profile/02484547476615554184noreply@blogger.com0