मुझको आटा पिरोना सिखा दो

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हे मछुआरे
हे शिकारी
बारिश की हल्की बूँदों में
नदी किनारे बैठे चुपचाप
तुम बंशी में आटा पिरोते हो
भूखी और थकी-हारी मछलियाँ
जब आटा निगलने आती है
तुम्हारे छले हुए आटे में छिपा
वो काँटा भी निगल जाती हैं
मछलियों को उनकी भूख मिटाने का
तुम अक्सर झाँसा देते हो
मगर इस छल से, इस धोखे से
तुम अपनी भूख मिटाते हो
अरे शिकारी
मुझको अपनी नहीं
मछलियों की ही सही
मगर भूख मिटाना सिखा दो
अरे यार मछुआरे
मुझे आटा पिरोना सिखा दो
उस बंशी में
जिसमें
न कोई काँटा है
और न ही कोई डोर

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