तेरी यादें मेरा खज़ीना

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कभी-कभी मेरे ज़ेहन में यह कसक-सी उठती है
कभी-कभी मेरा ज़मीर मुझसे सवाल करता है
कि तुम्हारी यादों का सारा साज़ो-सामान
आज तुमको लौटा दूँ
किताब में रखे वह मोर के पँख
वह मुरझाए हुए गुलाबों की पंखुड़ियाँ
तुम्हारे क़दमों के सुपुर्द करूँ
तुम्हारे हाथों की लिखी तहरीरों से
अब कोई रिश्ता न रखूँ
मगर सोचता रहता हूँ
कि मेरे हाथ ख़ाली रह जाएँ
क्या यही मेरी मोहब्बत का हासिल है
तुम तो तुम हो
तुम्हें हर हाल में जीने का हुनर आता है
मगर मेरे पास जीने के लिये
तुम्हारी यादों की इस पोटली के सिवा
कुछ भी तो नहीं है
कुछ भी नहीं है
हाँ, शायद.........
कुछ भी नहीं।

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