एक अनकही बात

11:19 AM Edit This 0 Comments »
रफ्ता-रफ्ता तेरी ख़ामोशियों में डूबकर
मैंने मीलों किया तन्हा सफर रफ्ता-रफ्ता
वक्त की पहली सहर से लेकर
तक़दीर की आख़िरी शाम तलक
तुम मेरी नब्ज़ में बहते हो लहू बनकर
मेरी आँखों में किसी नूर की तरह सलामत हो
तुम मेरे साथ हो यूँ
साँसों का सिलसिला हो जैसे
सवाल यही है
कि मैं तुम्हारे क़रीब
हूँ भी कि नहीं
या सिर्फ तुम ही मुझमें समाए हो
सच्चाई यही है
कि तुम मुझमें हो
और मैं तुम में हूँ
मेरे-तुम्हारे बीच
अब कोई फासला नहीं, कोई दीवार नहीं
अब सोचता हूँ
वह बात तुमसे कह दूँ
वह ज़िक्र तुमसे करूँ
जो मैं सोचता आया हूँ कई सदियों से...........

रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान

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