.......एक अरसे दराज़ के बाद

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एक अरसे दराज़ के बाद
आज तुमको देखा है
आँखों में वह चमक बाकी तो है अभी तक
मगर तुम कई रातों के जागे हुए लगते हो
सूरत वही जानी पहचानी-सी है
पर न जाने क्यों तुम अजनबी से दिखते हो
ये कई बार मेरा-तुम्हारा सामना
कहीं महज़ एक इत्तिफाक़ तो नहीं
या फिर इत्तिफाक़ बनाया गया है यूँ ही
अफसोस मगर कि नज़दीक से गुज़रकर भी
नज़र भरके नहीं देखा तुमने
दामन बचाए ख़ामोशी से लौट गये हो तुम
आज, दुःखी मन से मैं अपने घर में आया हूँ
उन फटे हुए ख़तों के पुर्ज़े
अपनी लहू बहती उँगलियों से जमा करके लाया हूँ
मन करता है उस नदी की तेज़ धारा में
इनको बहाता चलूँ
जिसके किनारे पर अक्सर
हम-तुम मिला करते थे
मन करता है उसी मक़ाम पर
ख़तों के पुर्ज़े बिछाऊँ
और उन पर सो जाऊँ
हमेशा......हमेशा के लिये.............

रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान

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