लड़की शहर की थी

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जिसे ता उम्र सोचा वो लड़की शहर की थी
उसने छोड़ा जिस जगह वो धूप दोपहर की थी।

मुझको तसल्ली देती रही वक्ते रुख़सती पर
पर्चा दवा का हाथ में, शीशी ज़हर की थी।

अरमाने इश्क मुझको ले आया था कहाँ
न पता था शाम का, न ख़बर सहर की थी।

थक-हारके दरख्त के नीचे मैं आ गया
हालात की नवाज़िश और गर्द सफर की थी।

नर्म लहज़ा, दाईमी तबस्सुम और प्यार भरी बातें
उसमें सारी क़ैफियत अता तेरे असर की थी।


रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)

क़द के बराबर क़फ़न

1:44 PM Edit This 0 Comments »
सोई आँखों में मेरी याद जगाकर रखना
आँख तर रखना मगर सबसे छुपाकर रखना

यूँ बदगुमान हुआ दिल मेरे सीने से निकलकर
मेरे सीने में धड़कता हुआ कोई पत्थर रखना

यादे गर्दिश को समेटे हुए चलना लेकिन
दिल में सहमी हुई आहों का समन्दर रखना

मैंने उसको नहीं देखा है, न उसने मुझे
गर मिले दुनिया कहीं अक्स बनाकर रखना

तन ढको उनका जो ज़िन्दा हैं, बेलिबास भी हैं
तुम क़फ़न मेंरा मेरे क़द के बराबर रखना

आना है अगर लौटकर, तो लौट आओ मगर
अब मेरे बीच से हद एक बनाकर रखना


रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)

तेरे दर्शन

1:23 PM Edit This 0 Comments »
ओ मेरे नयनों के सुनहरे दर्पण
हर पल मैं चाहूँ बस तेरे दर्शन

आकाश काला वो काली घटाएँ
चुराया है तेरे नयनों से अँजन

था सूर्य तो कई शतकों से
प्रकाश पाया किए तेरे दर्शन

झाँका बादलों से जब चन्द्रमा ने
हुआ तेरा रोगी देखके तन-मन

पुष्प कमल के खिलके नदी में
देखके डोले हैं तेरा रंजन

था विनोद प्रिय ये जीवन मेरा
आप न आये, दिल सूना आँगन

होती न दीपक में ऐसी ज्योति
होते यदि न तुम मेरे साजन

रचयिता - मुस्तफीज़ अली ख़ान, बरेली (उ०प्र०)